卍 ॐ जगजीवन नमो नमः श्री जगजीवन नमो नमः। जय जगजीवन नमो नमः जय जय जग जीवन नमो नमः।। 卍

Thursday, April 4, 2019

कीर्ति गाथा 74


          बादशाह मुद्दीशाह ने जब समर्थ साई  जगजीवन दास जी के यश और सिद्धियों के बारे में सुना तो है चुपचाप बिना किसी को बताए समर्थ साई जगजीवन दास जी के दर्शन हेतु चल दिए ,और सरदहा के निकट नदी के किनारे जंगल में ठहर गए, और अपने मन में विचार किया कि उस समय समर्थसाई जगजीवन दास जी के दर्शन करूं जब ज्यादा भीड़ ना हो ,पर कई दिनों तक उनको ऐसा मौका ना मिला ।तब एक दिन ऐसा विचार किया कि अच्छा आज जरूर दर्शन करूंगा, उस दिन समर्थ स्वामी जी ने अपने आसन के निकट ही अपने हाथों से एक कंबल बिछाया जिसे देख कर सभी सेवक आश्चर्य में पड़ गए कि ऐसा कौन सा महात्मा आ रहा है जिसके लिए समर्थसाई जगजीवन दास जी ने अपने हाथों से आसन लगाया है। परंतु पूछने की हिम्मत ना कर सके ,कुछ समय के उपरांत फकीरों के भेष मे  मुद्दी शाह आ गए ,जिन्हें समर्थ  स्वामी जी ने अपने पास आसन पर बैठा कर कुशल क्षेम पूछा, तब बादशाह मुद्दी शाह  बोले कि बिना सुमिरन के आप की दया नहीं होती और ना ही कुशलता होती है ,यह सुनकर समर्थ साईं जगजीवन दास जी ने कहा"" सत्यनाम कहु रे सुल्ताना ""।जिसे सुनकर मुद्दी शाह  मग्न  हो गए और आंखों से आंसू बहने लगे थोड़ी देर के बाद वह उठकर चले गए तो सेवकों ने समर्थ स्वामी जी से पूछा कि यह कौन थे, और कहां से आए थे ?तब समर्थसाई जगजीवन दास जी ने कहा यह बादशाह हैं परंतु भक्त और सत्संगी हैं ।अब राजपाट छोड़कर ईश्वर उपासना कर रहे हैं और कहीं दूसरी जगह चले जाएंगे।
   

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