एक ब्राहम्णी सोना नाम की भक्ति भाव से प्रेरित होकर विरक्त भाव से पालकी पर सवार होकर अनेक साधुओं के साथ समर्थ स्वामी जी के दर्शन हेतु आई। परन्तु समर्थ स्वामी जी के पास दर्शनार्थियों की भीड देखकर मन में विचार किया कि इस मेले में कोई ज्ञान ध्यान की बातें नही हो सकेगी इसलिये चलना चाहिये। यह सोचकर वह पालकी से न उतरी। स्वामी जी ने सोना ब्राहम्णी के मनोभावों को समझ लिया और कहलाया कि यदि तुम्हे भक्ति भाव एंव ज्ञान ध्यान जानने की इच्छा हो तो देवीदास जी के पास जाओ। यह सुनकर सोना ब्राहम्णी देवीदास जी के स्थाान पर पहूंची उस समय देवीदास जी अत्यधिक व्यस्ते थे। और चार प्रकार के कार्य एक साथ कर रहे थे पहला जो मकान बनवा रहे थे उनके कारीगरों की मकान सरंचना समझा रहे थे दूसरा पटवारियों से जिन दो गावों की जमींदारी थी उसका हिसाब और रखरखाव का हिसाब देख रहे थे, तीसरा अधविनाश ग्रन्थ की हस्तालिखित प्रतिलिपि तैयार कर रहे थे और सुमिरन माला भी चल रही थी। यह देखकर सोना ब्रहाम्णी ने सोचा कि जिस के पास इतना अधिक जंजाल और बखेडा हो उससे ज्ञान, त्याग और वैराग्य की क्या आशा की जाय वह तो स्वयं सांसारिक क्रिया कलापों मे उलझा हुआ है वह दूसरे को क्या वैराग्य एवं ज्ञान ध्यान की शिक्षा देगा यह सोचकर वह पालकी से न उतरी। उसके इन मनोभावों को समझ कर देवीदास जी ने पटवारी एवं कारीगरों को चले जाने का आदेश दिया और अधविनाश ग्रन्थ को प्रणाम कर बन्दगी कर दिया और वही बैठकर निम्न शब्द गाने लगे।
'मन माला पहिर सखीरे यामें अष्ट ज्ञान की गुरिया रे। गुदरी टोपी तिलक छाप माला मुन्दरा और चुरिया रे। सतमन तिलक न सिर पर सौहे कौन सिंगार बहुरिया रे। नख सिख जटा भसम तन सोहै तेज अगिन तन जरिया रे। तीरथ व्रत पै अल्प अहारों और मुख दूर अंटरिया रे। कठिन रसन वैराग्य भाग्यं तन की झालर, झन करिया रे। नाच कूद स्वांग नहिं भावै नहिं पिया के मौज लहरिया रे। बिछुडे हो तो तन मन जारों जैसे सती सिंगरिया रे। मिलिहौ तौ सत् सुख भोगौ करौ मन किरति पियरिया रे। ब्रहम अग्नि तन चिता जरावो सुमन सुहाग पुरिया रे। लज्जा काम सब बिसरावौ इत उत काम झंझरिया रे। नौ दस द्वार पार कर देखौ दसवें खोल कॅवरिया रे। पॉच रागिनी झुमक पच्चीसी छठवें घूम मगरिया रे। अजपाजाप पाक रही दौडी निरखौ सुख सुन्दयरिया रे। देवीदास के प्रभु जगजीवन ले पहॅुचावों सेजरिया रे। इसको सुनकर सोना ब्राहम्णीे आनन्द मग्न हो गई और पालकी से उतरकर देवीदास जी को प्रणाम करके कहा कि आप बहुत बडे महात्मा है। आपने मेरी गति को जान लिया तथा भक्ति मार्ग पर चलने वाले को जैसा गुरू मिलना चाहिये। आप बिल्कुल वैसे ही हैं। क्योंकि आप की दया के बिना मुझे यह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता अत- मुझे मन्त्र उपदेश दीजिए यह सुनकर देवीदास जी ने कहा कि मेरे घर मेला बखेडा बहुत लगा रहता है। वह तुम्हे शायद पालकी में पर्दाबन्द होने के कारण नहीं दिखाई दिया इसलिये तुमको किसी त्यागी महात्मा से मन्त्र उपदेश लेना चाहिये। मैं गृहस्थ तुमको क्या उपदेश दूंगा। यह सुनकर सोना ब्राहम्णी बहुत लज्जित होकर बोली कि मुझे क्षमा करें तथा त्याागी के जो गुण मैंने सुने थे कि दुनिया का सुख हो किन्तुी उसमें लीन न हो वही त्यागी है और वही सच्चा भाव आप में विद्वमान है अब मैं कहीं और दूसरी जगह नहीं जाऊॅगी। अगर जाना होता तो पालकी से क्यों उतरती। यह सुनकर देवीदास जी ने कहा कि यदि सिद्ध पद की कामना है तो तुम ठहरों परन्तु साथ आए साधु लोगों को जाने दो क्यों कि भक्ति मार्ग में मन का शान्त रहना एकान्त में बैठना आवश्यक होता है यह सुनकर सोना ब्रहाम्णी ने साधुओं को विदा कर दिया और मन्त्र उपदेश पाकर छ: मास की साधना उपरान्त सिद्धता प्राप्त की और सोना दासी कहलाई। तब देवीदास जी से सोना दासी ने पूछा कि मेरे लिये अब क्या आदेश हैा देवीदास जी ने कहा कि बिना भय के श्री गंगा जी के तट पर जाकर भजन करो इश्वर के लिये जल थल सब बराबर है श्री गंगा जी भक्तो की हमेशा रक्षा करती रहती है और थोडी सी भभूत देकर कहा की इसे गंगा जी के मध्यांचल मे डाल देना वहा पर जब जमीन निकल आए उसी स्थान पर आसन लगाना और भगवान का भजन करना इसके अतिरिक्त तुम्हे किसी और जगह जाने की आवश्यक्ता नहीं है ऐसा आशीर्वाद पाकर सोना दासी गंगा जी के बीच मे बैठकर भजन करने लगी उसके चारो ओर पानी भरा रहता परन्तु बीच मे टापू की तरह जमीन बनी रहती सोना दासी ने बहुत से शब्द भगवान की लीला का वर्णन करते हुए बनाए और ऐसी ख्याति पाई कि बडे- बडे साधु सन्त एव गृहस्थ श्रद्धा भाव से उनके दर्शनो के लिये नाव पर सवार होकर जाते और उनका मनोरथ पूरा होता सोनादासी की प्रसीद्धि सुनकर एक गरीब तवायफ सोना दासी के दर्शन हेतु गयी और उसने एक भजन गाकर सुनाया जिसे सुनकर सोनादासी ने प्रसन्न होकर प्रसाद स्वरूप एक शब्द (भजन) उसे प्रदान किया और कहा कि इसको जिस तरह हम बताये उसी तरह उसी सुरताल व लय मे गाना यह प्रसाद पाकर उस तवायफ ने उसी सुर ताल मे वह शब्द गाने के उपरांत ही अन्य गाने गाती कुछ ही दिनों में उसके गाने की प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी और एक दिन राजा ने उसे अपने दरबार में गाने हेतु बुलाया वहां पर भी उसने उसी शब्द से गायन शुरू किया जिसे सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और पुछा कि तुमको इस राग और शब्द के विषय मे किसने शिक्षा दी तवायफ ने कहा कि एक भक्त साहिबा जो मेरी गुरू भी हैा उन्होनें ने ही इसकी शिक्षा दी है जिसे सुनकर राजा ने कहा कि हम उनको अवश्य ही बुलाकर उनका गाना सुनेंगे तब तवायफ ने कहा कि वह सांसारिक बंधनो से मुक्त ईश्वकर की उपासना में हर क्षण लीन गंगा जी के टापू पर रहती हैा उनकी इच्छाा से ही कोई उनके दर्शन को जा सकता हैा और वह केवल भगवान की मुर्ती के समक्ष ही गाना गाती हैा इसलीये उन्हे यहां न बुलाये क्या मालूम नाराज हो जाये। और कुछ कह बैठे जिससे की अनर्थ हो जाये तब राजा ने कहा कि इसमे डरने की कोई बात नही वह अपने भगवान का सिहांसन लाकर इसी जगह गायेगी और नाचेंगी तो हम भी सुन लेंगें । उनका पता पूछकर राजा ने चोबदारों से उनको बुलवाया और साथ में यह भी कहलया कि भगवान के सिंहासन भी साथ लेती आंए। चोबदारों ने जब यह सन्देश सोनादासी को दिया तो उन्होने कहा कि हमको राजा से क्या लेना देना फिर भी यदि राजाज्ञा है तो चलो। और वे अपने भगवान का सिंहासन लेकर चल दी जब राज भवन तीन कोस (९ किलोमीटर) की दूरी पर रह गया वे वही रूक गई और चोबदारों ने जाकर राजा को सूचित किया तभी अचानक राजा का महल हिलने डुलने लगा और सभी लोग डरकर भूचाल आया समझ कर भागने लगे। राजा के महल के अतिरिक्त उस नगर के किसी अन्य मकान पर ऐसी आपदा न आई जानकर उस राजा की बुद्धिमान रानी ने राजा से कहा कि यह भूकम्प नही है क्योंकि भूकम्प् इतनी देर तक नहीं रहता और सभी मकानों पर उसका प्रभाव बराबर होता हैं और यहां पर किसी अन्य मकान में कोई भूकम्प नही है केवल राजमहल ही हिलडुल रहा हैं ऐसा प्रतीत होता है कि किसी महात्मा को आपने अथवा आपके परिवार वालों ने दुखी किया हैा यह सुनकर राजा ने कहा कि मैने किसी महात्मा को नहीं सताया केवल एक भक्तिन सोनादासी को बुलाया है जो अभी तीन कोस दूर ठहरी हैा यह सुनकर रानी ने कहा कि बडा अनर्थ हुआ महात्मााओं को अपने स्थान से उठाने से जमीन आसमान हिलने लगते हैं तो इस राजमहल की क्या औकात। इसलिये अभी दौडकर उनके पास जाकर अपने अपराध स्वीेकार कर क्षमा याचना करें और उन्हें उनके स्थान पर आदर सहित वापस भेजने का प्रबन्ध करें। राजा ने ऐसा ही किया तो सोनादासी ने कहा कि राजा का धर्म है साधु सन्तों को अपने राज्य में उचित स्थान देकर अच्छी तरह भजन करने का अवसर उपलब्ध कराएं न कि उन्हें बुलवाकर उन्हें दुख और दण्ड दें। तुमने तो मुझे और ठाकुर जी को पकड बुलवाया है। जिसके कारण तुम्हारा भवन हिलने डुलने लगा यदि हम भगवान का सिंहासन लेकर तुम्हारे भवन तक पहुंच जाते तो तुम्हाुरे भवन का क्या होता। इसलिये तुम लौट कर अपने घर जाओ और भविष्य में कभी किसी साधु महात्माा को तकलीफ न देना मैं भी ठाकुर जी को उनके स्थान पर वापस लिये जाती हॅू और वे अपने स्थान पर चली गई। |
कीर्ति गाथाएं
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Thursday, April 4, 2019
कीर्ति गाथा 77
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