समर्थ साहिब गुरु दत्त दास जी अलौकिक प्रतिभा के धनी थे आप सदैव ही पद्यमई वाणी में वार्ता किया करते थे आपके श्री मुख से निकली वाणी को श्री लक्ष्मी नारायण जी( एक सहयोगी परम भक्त ) ही लिखा करते थे आप सदैव ही नाम जप वा ध्यान सुमिरन में इतने तल्लीन रहते थे कि स्वयं की अवस्था का ध्यान नहीं रहता था अतः संतो भक्तों में आप सतनामी अवधूत कहे जाने लगे आप की अनेकों कीर्ति गाथाएं आज भी भक्तों के बीच चर्चा का विषय हैं बनारस के एक पंडित जी थे नाम था महावीर प्रसाद , महावीर प्रसाद जी ज्योतिष होरा शास्त्र मंत्र तंत्र आदि में परम प्रवीण और बहुत ही कुलीन उच्च परिवार के थे प्रौढ़ावस्था प्राप्त होने पर पंडित जी ने सोचा मोक्ष की प्राप्ति के लिए गुरु आवश्यक है किंतु गुरु बनाएं किसे या तो वह मुझसे अधिक ज्ञानी हो या जिसे देख कर ही ईश्वर में आस्था उत्पन्न हो जाए श्रद्धा से सिर स्वयं ही नतमस्तक हो जाए पंडित जी ने प्रण कर लिया जिसे देख कर श्रद्धा से सिर स्वयं ही नतमस्तक होगा वही मेरा गुरु होगा अत: योग्य गुरु की तलाश में पंडित जी भारत के सभी तीर्थों के भ्रमण पर निकल गए पर कहीं योग्य गुरु ना मिला मन में विचार उठा क्यों ना पास के तीर्थों का भ्रमण किया जाए और घूमते घूमते एक बार आप कोटवा धाम पधारे संयोगवश उस दिन जन्म सप्तमी थी और गुरु पर्व महोत्सव मनाया जा रहा था समर्थ साहिब गुरु दत्त दास जी पुरवा धाम से पधारे थे यहीं पर पंडित महावीर प्रसाद जी को समर्थ साहिब गुरु दत्त दास जी के प्रथम दर्शन हुए बस समर्थ साहिब गुरु दत्त दास को देखते ही आप नतमस्तक होकर लेट गए आपको स्वयं का भी बोध ना रहा प्रतिज्ञा याद आई और आपको गुरु मिल गया महावीर प्रसाद जी बहुत समय तक समर्थ साहिब गुरु दत्त दास जी के साथ ही रहे और नाम सुमिरन कर ख्याति प्राप्त हुए आज हम जो महावीर प्रसाद का पंचांग देखते हैं यह महावीर प्रसाद जी ही समर्थ साहिब गुरु दत्त दासजी के शिष्य थे।
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Thursday, April 4, 2019
कीर्ति गाथा 93
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