सतनाम पंथ के महात्मा प्रथम पावाधर समर्थ साहेब गोसाईं दास जी महाराज का आविर्भाव मुग़ल शाशन काल में हुआ था जब औरंगज़ेब जैसे बादशाह की धर्मान्ध कट्टरता का शिकार भारतीय समाज और संस्कृति दोनों हो रहे थे। लोग सुगम साधना मार्ग की खोज में थे। ऐसे ही वातावरण में संत महात्माओं की वाणी से जन साधारण को ज्ञान प्राप्ति का मार्ग सरल लगा।
समर्थ साहेब श्री गोसाईं दास जी महाराज का जन्म सम्वत 1727 फाल्गुन अमावस्या को ग्राम चेतिया जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश में हुआ। यह भृगु गोत्रीय सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम ब्रह्ममणि था। बचपन का नाम इनका गोसाईं मणि था। इनके जन्म के दो वर्ष बाद इनसे छोटे भाई आह्लाद का जन्म हुआ। इनकी माता का नाम सुमित्रा देवी था। साहेब गोसाईं दास जी के पिता का स्वर्गवास बचपन में ही हो गया। माता को बालकों के पालन पोषण की कठिनाई हुई तो वह अपने दोनों बालकों के साथ अपने पिता के घर ग्राम सरैयां जनपद बाराबंकी चली आईं। यही पर दोनों बालको का पालन पोषण हुआ। संत गोसाईं दास जी का झुकाव भगवत भजन की बालपन से ही था। किशोरावस्था प्राप्त होने पर इन्होंने अनुभव किया कि बिना गुरु कृपा के ज्ञान प्राप्त नही हो सकता। गुरु करने की प्रबल इच्छा गोसाईं दास जी के ह्रदय में जाग्रत हुई।उस समय तक स्वामी जगजीवन दास जी का अवतार ग्राम सरदहा जिला बाराबंकी में हो चूका था। श्री साहेब गोसाईं दास जी सरदहा ग्राम गये और स्वामी जगजीवन साहेब से गुरु दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की तो स्वामी श्री ने इनमे अटूट श्रद्धा का भाव देख कर तारक मन्त्र का उपदेश देकर इन्हें उपकृत किआ जैसा इस दोहे में स्पष्ट है- जगजीवन जग प्रगट भये। कीन्ह सरदहा वास।। चेला तिन्हके प्रथम भये। धन्य गोसाईं दास।। उसी समय स्वामी श्री ने इनका नाम गोसाईं मणि से गोसाईं दास रख दिया। यह पुनः सरैयां में आ के साधना में लीन हो गए, परंतु कुछ दुष्टजन इनकी साधना में बाधा डालने लगे तो स्वामी श्री के आदेशानुसार इन्होंने सरैयां ग्राम का परित्याग कर के 4 मील दक्षिण में ग्राम कमोली जनपद बाराबंकी में अपनी कुटी बनाई। यहीं पर शरीरान्त तक भजन किआ। श्री गोसाईं दास जी आजन्म ब्रह्मचारी रहे परंतु अपने अनुज भ्राता का विधिवत गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करा दिया तथा अपने वंश की नींव डाली। श्री आह्लाद दास जी के एक पुत्र गिरधर दास जी हुए। श्री साहेब गोसाईं दास जी का गोलोक गमन सम्वत 1833 विक्रमीय कार्तिक अमावस्या को हुआ। उन्ही की वंश परम्परा में तृतीय महंथ श्री साहेब चन्द्रिका प्रसाद दास चतुर्थ महंथ साहेब श्री संगम दास पंचम महंथ साहेब श्री कृष्ण दास तथा छठी पीढ़ी के महंथ श्री दुलारे दास जी महराज कमोली गद्दी पर लगभग एक शताब्दी तक सत साधना से सत्यनाम का प्रचार किआ। वंश परम्परा सप्तम महंथ श्री सत्यशरण दास जी महाराज थे। और वर्तमान में अष्टम वंश परम्परा के महंथ पावाधर श्री जगदीश शरण दास जी महाराज हैं। जो सदैव सत साधना से सतनाम का प्रचार प्रसार करते है। और आश्रम पर आये हुए अतिथि और सन्त समुदाय का उचित स्वागत और सत्कार करते है। सत्यनामी आश्रम समर्थ साहेब गोसाईं दास जी की समाधी पर नित्यप्रति भंडारा चलता है। सभी आगंतुक तृप्त होते है। साहेब गोसाईं दास जी का व्यक्तित्व एवं उपदेश श्री साहेब गोसाईं दास जी की समाधी ग्राम कमोली में सतगुर अघहरण सरोवर के दक्षिण में स्थित है। इनकी समाधी पर प्रत्येक मंगलवार और पूर्णिमा को अनेको श्रद्धालु दर्शन स्नान को आते रहते हैं। साहेब गोसाईं दास जी की समाधी पर स्वांस रोग (अस्थमा) जिसको दमा भी कहते है का उपचार भी जड़ी बूटी के माध्यम से किआ जाता है। परमार्थ भाव से यह बूटी साहेब गोसाईं दास जी के बताये नियमो के अनुसार ही दी जाती है। इसका लाभ लगभग समस्त भारत के लोगो के साथ साथ विदेशों से भी आकर लोग प्राप्त करते है। साहेब जगदीश शरण दास जी महाराज यह औषधि प्रत्येक रविवार और मंगलवार को निःशुल्क देते है। और सत्य साहेब की सेवा में लगे रहते है। साहेब गोसाईं दास जी का जीवन सादा था, यह स्वयं पैदा करके अन्न ग्रहण करते थे, लोभ इन्हें था ही नही। एक बार हड़ाहा राज्य की और से कमोली ग्राम को माफ़ी देने का संदेश आया परंतु आपने लेने से इंकार कर दिया। आप धन को संयम-भजन मार्ग की बाधा मानते थे। वह चढ़ा हुआ अन्न धन नही ग्रहण करते थे उसे आतिथ्य पर खर्च कर देते थे। सन्तों की सेवा इनका प्रथम धर्म था। साहेब गोसाईं दास जी द्वारा रचित ग्रंथो में शब्दावली,दोहावली आदि प्रमुख है। इनकी रचनाओं में काव्य सौंदर्य की अपेक्षा जीवन के अनुभव एवं स्पष्ठ उपदेस अधिक है। ऐसा प्रायः सभी संतों की रचनाओं में पाया जाता है। इनकी भाषा दुरुहतामुक्त है, तथा जनसाधारण की समझ में बड़ी सरलता से आ जाती है। इनकी रचनाओं में सूफी परम्परा का प्रभाव लक्षित होता है। इन्होंने उपासना सखी भाव से किआ है। उदाहरण स्वरूप आपकी रचना से एक दोहा- सांचे समरथ साँवरे मोहि, निजनेकु निहार। भवसागर यह प्रबल है, गहिबिच बांह उबार।। साहेब श्री गोसाईं दास जी के उपदेस जनसाधारण को ग्राह्य थे। उनका दृढ मत था कि केवल गृह त्याग कर जंगल वास करने से कोई सिद्ध नही हो जाता। मन को स्थिर करके एकाग्रचित से 'नाम' का स्मरण करने से ही ज्ञान प्राप्त होता है। यह केवल गुरु कृपा से ही सम्भव है। गुरु के चरणों में अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। गुरु कृपा से ही ध्रुव, प्रह्लाद आदि भक्त हुये है। उनका मत था कि ख्याति प्राप्ति की आशा के बिना अजपा जाप निरंतर मनमे करना चाहिए। ख्याति साधना के मार्ग में बाधक है। दैन्य भाव से ही उपासना श्रेष्ठ है। 'लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूरि' सभी सत्यनामी भक्तों को इनके उपदेशों का ध्यान पूर्वक आचरण करना चाहिए। साहेब गोसाईं दास जी ने लिखा है- 1- जंगल बस्ती एक है नेक न दूजा जानिए। गोसाईं दास भजि नाम रस संचापिये पहिचनिये।। 2- अगम गमि, तहँ गमि भई, जब गुरु दाया कीन्ह। गोसाईं दास भव जाल ते, शरण आपनी लीन्ह।। अतः निरंतर गुरु के दिए उपदेशो का मनन आचरण करें। तभी हम सभी का इस संसार में रहकर भी कल्याण होता रहेगा। साहेब गोसाईं दास जी के जीवन से अनेक चमत्कारिक घटनाएं भी जुड़ी हुई है और प्रायः उनकी समाधि और आश्रम पर दिख भी जाती है। परंतु जनमानस के लिए जो चमत्कार है संत के लिए एक सामान्य कृत्य मात्र। साहेब ने गुरु द्वारा दिखाये मार्ग पर चलकर राम मन्त्र को सर्वोपरि माना, तथा जीवन पर्यंत साधना की एवम समाज के भटके लोगो का मार्गदर्शन किया। आज की परिस्थितियों में इनके द्वारा दिए उपदेशों का अनुकरण एवम अध्ययन तथा इनके चरित्र की चर्चा समाज के लिए अत्यंत उपयोगी है। |
समर्थस्वामी जगजीवन साहब के चार प्रथम शिष्य
3-समर्थसाहब देवीदास पुरवाधाम जिला बाराबंकी(उत्तर प्रदेश)।
4-समर्थसाहब ख्याम दास मदनापुर जिला बाराबंकी(उत्तर प्रदेश)। समर्थस्वामी जगजीवन साहब के 14 शिष्य (14 गद्दी) |
Wednesday, March 27, 2019
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