एक समय मेले के अवसर पर एक फकीर जो खुरासान के रहने वाले थे जो देखने में बड़े रूपवान तेजस्वी और बुद्धिमान प्रतीत होते थे ,वह समर्थ श्री जगजीवन दास जी के पास आए क्योंकि उन का नियम था कि जब वह किसी तीर्थ स्थान में जाते तो वहां के महात्मा को सिद्ध या ज्ञानी सुनते तो उसके दर्शन हेतु अवश्य जाते और अपने हाथ में जो तोंबी ( भिक्षा का पात्र )रखते थे उसे उस महात्मा के समक्ष रख देते और कहते कि इसे भर दो और मंत्र पढ़ते थे ,तो वह तोंबी (नाच कर उनके पास लौट जाती थी परंतु उनकी तोंबी कभी भर्ती नहीं थी हमेशा खाली ही रहती थी स्वामी जी के दरबार में आकर उन्होंने समर्थसाई जगजीवन दास जी से कहा कि तोंबी भर प्रसाद मिले, तो यह सुनकर महाभाँट ने तोंबीमें प्रसाद डाला परंतु तोंबी ना भरी और कई बार अधिक मात्रा में प्रसाद डालने पर भी तुमड़ी ना भरी ,यह देखकर समर्थसाईं जगजीवन दास जी ने कहा सिद्ध फकीर जी जरा अपनी तोंबी इधर लाओ थोड़ा सा प्रसाद मैं भी दे दूं और जब समर्थजगजीवन दास जी ने एक चुटकी प्रसाद उस तोंबी में डाला तो तोंबी ऊपर तक भर गई और उसमें अधिक प्रसाद रखने की जगह ना बची तब वह सिद्ध महात्मा समर्थ जगजीवन दास जी के चरणों में गिर पड़े और कहा कि महाराज मेरी खता माफ हो मेरी मनोकामना पूरी हुई आपके बारे में जैसा सुना था वैसा ही पाया तब समरँथ साईं जगजीवन दास जी ने कहा की परीक्षा लेने के निमित्त से किसी भी साधु से मिलना छोड़ दो, महात्मा सिद्धता छुपा कर रखते हैं ,और ईश्वर का नाम जप करते हैं और दुनिया के राग रंग से दूर रहते हैं ,यह सुन कर वह फकीर बहुत प्रसन्न हुए और प्रणाम करके अपने स्थान पर चले गए।
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Tuesday, April 2, 2019
कीर्ति गाथा 59
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