एक बार सोमवारी अमावस्या के अवसर पर अयोध्या के महंत रामप्रसाद जी बहुत से साधुओं और घोड़ा हाथी ऊंट पालकी के साथ चक्रतीर्थ नीमसार (नैमिषारण्य) में स्नान करने के लिए जा रहे थे ,जब सरदहा गांव के पास आए तो विचार किया कि यहां के महंत स्वामी जगजीवन दास जी हैं, और सुना है कि वह साधुओं का बड़ा सत्कार करते हैं इसलिए आज उन्हीं के स्थान पर ठहरा जाए, यह विचार करके वह समर्थ श्री जगजीवन दास जी के पास आए और कहा सीताराम, तब समर्थ श्री जगजीवन दास जी ने जवाब दिया ""सत्यनाम"", यह सुनकर वह दल सहित वहीं बैठ गए थोड़ी देर तक जब समर्थ साईं जगजीवन दास जी ने ठहरने की बात ना कही तब महंत जी के साथी साधुओं ने महंत जी से कहा कि यहां आदर सत्कार की बात भी ना हुई, भोजन की बात तो दूर है मालूम होता है कि उपवास हो जाएगा ,इसलिए अब यहां से चला जाए, समर्थ साईं जगजीवन दास जी ने देखा कि महंत जी एवं साधुगण सत्कार के लिए यहां आए थे इसलिए उनका इस तरह से चले जाना उचित नहीं है ,इसलिए उनका आदर सम्मान किया जाए ,तब समर्थ श्री जगजीवन दास जी महंत जी से बोले सरैया गांव में गोसाई दास जो यहां के शिष्य हैं उनको आप के दर्शन की अभिलाषा है ,यदि आप इसी समय वहां जाकर विश्राम करें तो बहुत अच्छा होगा, महंत जी ने कहा कि उसी तरफ से होकर जाऊंगा और चलकर सरैया गांव गोसाई दास जी के स्थान पर पहुंच गए, वहां जाकर देखा कि घास फूस का बना एक मकान है जो किसी गरीब व्यक्ति का प्रतीत होता था, जिसे देख कर वह साधु कहने लगे कि जहां ठहरने का आसरा किया था वहां तो कुछ ना हुआ तो यहां क्या व्यवस्था होगी इससे तो अच्छा था कि रास्ते में ही चलते रहते ,उसी समय गोसाई दास जी वहां पहुंचे और महंत जी से बोले महाराज कृपा करके आज इसी स्थान पर रात्रि निवास करके दास को कृतार्थ करें, तब महंत जी बोले कि हम लोग सोमवारी अमावस्या का स्नान करके नीमसार जा रहे हैं स्नान के लिए, ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं और काफी दूरी तय करनी है ,इसलिए हम चले जाएंगे और मुकाम ना हो सकेगा गोसाई दास जी बोले कि महाराज अधिक समय ना लगेगा, अभी भोजन का प्रबंध हुआ जाता है ,तब महंत जी ने कहा कि पहले आप साधुओं को देख लीजिए और अपना सामान तब मुझसे कहिए तब ठहर सकते हैं ,गोसाई दास जी ने कहा कि बहुत अच्छा और वहां से चलकर घर में आए और पूछा कि भोजन तैयार है तब उन्हें ज्ञात हुआ कि पांच आदमियों के लायक पूरी सब्जी तैयार है यह सुनकर गोसाई दास जी ने कहा कि जल्दी से घर के बाहर और भीतर चौका लगाओ और स्वयं लौटकर महंत जी से बोले की महाराज चलिए भोजन ग्रहण कीजिए महंत जी सभी साधुओं के साथ भोजन के लिए बैठ गए और गोसाई दास जी ने स्वयं अपने हाथों से पत्तल में भोजन परोसना शुरू किया, जिसमें पूरी सब्जी शक्कर दही मिठाई अचार तथा जल था सभी ने अच्छी तरह से भोजन किया और जितने जानवर साथ में थे उनको भी भोजन दिया गया तब महंत जी बोले जगजीवनदास धन्य हो और उनके शिष्य गोसाई दास तुम धन्य हो रिद्धि सिद्धि महात्माओं के अधीन होती है यह बात आज देख ली हमें क्षमा करना ,और वह सब विदा होकर चले गए।
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Wednesday, April 3, 2019
कीर्ति गाथा 69
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