卍 ॐ जगजीवन नमो नमः श्री जगजीवन नमो नमः। जय जगजीवन नमो नमः जय जय जग जीवन नमो नमः।। 卍

Wednesday, March 27, 2019

कीर्ति गाथा 12


          समर्थस्वामी साहेब जगजीवन दास एक बार कोटवाधीश समर्थ स्वामी जगजीवन साहब जी गांव में विचरण कर रहे थे कि रास्ते में एक ब्राह्मण मिला जो कुष्ठ रोग से पीड़ित था और बहुत दूर से चलकर आया हुआ प्रतीत होता था  ।स्वामी जी ने उस ब्राह्मण से पूछा कि  तुम कहां से आ रहे हो तो उस ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि मैं जगन्नाथपुरी से आ रहा हूं मैं वहां गया था किंतु मैंने अपना आचार विचार नहीं त्यागा और जगन्नाथ जी के ठाकुर द्वारे का श्रीप्रसाद भी  कुंठित बुद्धि एवं मलिनब्राह्मणत्व  के विचार के कारण ग्रहण नहीं किया, जिसके कारण मैं कुष्ठ रोग से ग्रसित हो गया ।तब मैंने यह प्रतिज्ञा की कि अब यहां से निरोग होकर ही जाऊंगा या प्राण त्याग दूंगा और फिर उस ब्राह्मण ने बताया कि मैं वहीं पड़ा रहा कुछ दिन उपरांत श्री ठाकुर जी ने कृपा करके मुझको स्वप्न में दर्शन दिया, और मुझे इस भयानक रोग से मुक्ति कैसे मिलेगी इसका उपाय बताते हुए कहा कि तुम्हारा रोग इस प्रकार मिटेगा, जब तुम अयोध्या जी के पश्चिम सरदहा गांव में जन्मे मेरे ही अवतार स्वामी जगजीवन दास के पास श्रद्धा पूर्वक जाकर बिनय करोगे कि  किस लिए मैं वहां से चलकर यहां तक आया हूं ,और अब मुझको आपके तेजस्वी रूप के दर्शन से ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा दुख हरने वाले आप ही हो इतना कहकर वह ब्राह्मण बैठ गया, तब स्वामी जी ने कहा कि अभरन कुंड पर चलो, वहां ले जाकर कहा कि इसमें स्नान करो उसने पानी में गोता लगाया और पानी से निकलते ही वह  ब्राह्मण निरोगी हो गया और शरीर की समस्त पीड़ा मिट गई तब ब्राह्मण ने कहा महाराज मुझे अब महाप्रसाद दीजिए तब स्वामी जी ने कहा कि तुम ब्राह्मण हो और मैं क्षत्रिय हूं हमारा दिया प्रसाद तुम कैसे पाओगे ?तब ब्राह्मण ने कहा कि महाराज आप ब्राह्मण क्षत्रिय नहीं हैं ,आप पारब्रह्म परमेश्वर हैं,आपके हृदय में श्री राम जी का निवास है ,आप ब्रम्हरूप हैं ,अतःमुझको प्रसाद देने की कृपा कीजिए और ज्ञान का उपदेश दीजिए जिससे मेरी बुद्धि निर्मल हो जाए तब श्री समर्थ साईं जगजीवन दास जी ने मिठाई मंगा कर एक लड्डू स्वयं खा लिया और शेष प्रसाद ब्राह्मण को दे दिया भोजन कराने के बाद भक्ति मार्ग का उपदेश देते हुए और दया करके अपना हाथ ब्राह्मण की पीठ पर रखा स्वामी जी के प्रताप से अति सुंदर स्वरूप वान होकर वहां से स्वामी जी का गुणगान करते एवं जय जय कार करते हुएअपने घर को  चला गया।।  (कीरति  संख्या 12,संकलित अंश  कीरत  सागर ) 


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