एक बार एक सतनामी भक्त अपने पुत्र के साथ सरदहा गांव के लिए लखनऊ से चला रास्ते में ठगों ने उसे धनवान समझ कर उसका पीछा किया और यह विचार किया कि जब मौका मिले तो इसे मार कर इसका सारा धन लूट ले जब भक्त शहर से बाहर आया तो ठगों ने कहा कि अपना धन यही छोड़ दो नहीं तो हम तुम्हें मार डालेंगे भक्त सहम कर खड़ा हो गया उसी समय सिपाहियों का एक दल वहीं आ पहुंचा सिपाहियों को देखकर ठग भाग गए जब सिपाही चले गए भक्त इसे समर्थ साई जग जीवन दास जी की दया समझ कर फिर आगे चल पड़ा कुछ देर बाद उन्हीं ठगों ने फिर उसे घेरा पुन: वही सिपाहियों का दल वापस आ गया जिसे देख कर ठग फिर भाग गए इस तरह कई बार ठगों ने लूटने का प्रयास किया किंतु प्रत्येक बार सिपाहियों के डर से उन्हें भाग जाना पड़ा भक्त प्रसन्न मन से सरदहा पहुंचा और अभरन सागर में स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन कराया और ठगों को भी अभ्यागत मानकर प्रसाद स्वरूप मे मिठाई खिलाया उसी समय ठगों की बुद्धि बदल गई और उन्होंने विचार किया कि हम लोग बड़े पापी हैं और धर्म कर्म करने वालों को हम अपनी जीविका हेतु लूट लेते हैं अतः हम लोगों का जीवन व्यर्थ है और आपस में विचार किया कि हम लोगों को भी अभरन में स्नान करके समर्थ साईं जगजीवन दास जी का दर्शन करना चाहिए स्नान करके ठग भी समर्थ साई जग जीवनदास जी के पास पहुंचे भक्त ने समर्थ साई जगजीवन दास जी को दंडवत प्रनाम किया और पूजा में रुपया मिठाई मलमल का थान और एक (पहुंची) जेवर चढ़ाई इसके बाद ठगों ने भी समर्थ साई जग जीवन दास जी को प्रसाद चढ़ाया है इस पर समर्थ साई जग जीवन दास जी ने ठगों से पूछा कि तुमने क्या मनोकामना की है जिसे प्राप्त करने हेतु प्रसाद चढ़ाया है तब ठगों ने हाथ जोड़कर कहा कि मेरा अपराध क्षमा हो हमने अपने जीवन में सदैव मारने और यात्रियों को लूटने का कार्य किया है इसी उद्देश्य हमने इस भक्त का भी पीछा किया कि इसे मार कर लूटते है किंतु आपके प्रताप से हर बार सिपाहियों का दल आकर इस भक्त की रक्षा करता रहा और यहां आकर हमारा हृदय परिवर्तन हो गया और यह ठगी का कार्य अब हमें अच्छा नहीं लगता आप समर्थ हैं दया करके हमें उबारिये तब समर्थ साई जगजीवन दास जी ने कहा भगवान का भजन करो सब पाप मिट जाएंगे और हिंसा छोड़ दो यह सुनकर ठगों ने स्वामी जी के पैर पर सिर रखा और कहा आप हमें नाम दीक्षा दो समर्थ साई जग जीवन दासजी ने सबको भक्त बनाया स्वामी जी के स्थान पर यह परंपरा थी कि जो भी प्रसाद व चढ़ावा आता था वह महाभाट और भक्तों को वितरित किया जाता था स्वामी जी के पास (पहुंची )जेवर चढ़ावे में आई देखकर महाभाट के मन में लालच आ गया और विचार किया कि यह जेवर मुझे मिलता तो अच्छा होता अंतर्यामी स्वामी जी महाभाट के लालच को समझ गए और पहुंची उठाकर एक नर्तकी को दे दिया और महाभाट से कहा कि हक अपना अपना जिसे सुनकर महाभाट लज्जित हुआ वह भक्त और वै ठग कुछ दिन स्वामी जी के सानिध्य में रहकर अपने अपने घर वापस चले गए
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Thursday, March 28, 2019
कीर्ति गाथा 37
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