समर्थ साई श्री जगजीवन दास जी का जन्म संवत् 1727 विक्रमी माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन मंगलवार को हुआ जन्म लेने के तीसरे दिन माताजी ने आपको पलंग पर सुला दिया और कोठरी के बाहर दालान ( बरामदे) में कोई कार्य करने लगी और समर्थ साई जगजीवन दास जी को अकेला छोड़ दिया अत: माता जी की परीक्षा लेने के उद्देश्य से श्री समर्थ साई जगजीवन दास जी ने अपनी सांस रोक कर प्राण वायु को ब्रह्मांड में स्थिर कर लिया और जिस समय माता जी आपके पास आयी तो आपको निष्प्राण पाया और रोने लगी तथा माता जी को बहुत दुख हुआ कि उनके अकेले छोड़कर चले जाने के कारण किसी टोने टोटके करने वाली ने उन्हें मार डाला जब समर्थ साईं जगजीवन दास जी ने देखा कि माता की विकलता बहुत अधिक बढ़ गई है तो आपने पुनः ब्रह्मांड से प्राणवायु उतार लिया और मां की तरफ देखकर धीरे धीरे मुस्कुराने लगे तथा माता जी पुन: प्रसन्न हो गई जन्म लेने के 6 महीने बाद एक दिन माता ने तेल उबटन लगाकर समर्थ साई जगजीवन दास जी को बिस्तर पर सुला दिया और खाना बनाने लगी किंतु माता जी की एक दृष्टि समर्थ साईं जगजीवनदास पर तथा दूसरी दृष्टि भोजन बनाने पर थी अचानक माताजी ने देखा कि एक योगिराज स्वामी जी को पलंग से उठाकर झोली में रखकर आकाश मार्ग की ओर चल दिये उसी दिन स्वामी जी ने इक्की सों ब्रह्माँड देखा और सच्चिदानंद भगवान के दर्शन किए और वहीं पर स्वर्णिम तिलक मस्तक पर विराजमान हुआ और आकाशवाणी हुई कि """सत्यनाम पंथ सत्य """और """किन पायो अस भक्त निशानी""" इसके बाद समर्थ साईं जगजीवन दास जी को पलंग पर पहुंचाकर योगीराज अंतर्ध्यान हो गए यह देखकर माताजी पलंग के पास दौड़ कर आई और मस्तक पर जगमगाता तिलक देखकर उन्होंने घर में तथा गांव वालों को दिखाया तब सब समझाने लगे कि उन्हें डरना नहीं चाहिए ना ही फिक्र करनी चाहिए यह ईश्वर की मूर्ति हैऔर इच्छा चारी है और स्वामी जी जहां चाहे और जो चाहे करें आकाशवाणी सत्य है और यह तिलक भक्त होने की निशानी है जो इन्हें भगवान से प्राप्त है
जब समर्थसाई जगजीवन दास जी दो वर्ष के हुए तो बोलने लगे """सत्य नाम सत्य""" उस समय सबको आश्चर्य होता था उसी समय के दौरान में उनके बहन पैदा हुई। घर के लोगों ने उसे मार डालने का विचार किया। तब आप माताजी के पास शिशु गृह में गए और कहा लड़की मारने का बड़ा पाप होता है ,उसे कदापि नहीं मारना चाहिए ,और उसे ना मारो ।तब माताजी ने कहा कि यह सब बातें तुम्हारे पिताजी जाने, .तब समर्थ साई जगजीवन दास जी ने वहां से आकर पिताजी से यही बात कही तब उनके पिता ने जवाब दिया कि अभी तुम बच्चे हो यह बात तुम नहीं समझोगे। तब समर्थ साई जगजीवन दास जी ने पूछा कि मारने का क्या कारण है ?तब पिताजी बोले कि इतना धन कहां से आएगा की कन्यादान करके कन्या किसी राजा को ब्याही जाए ,और सदा घर पर ही बिन व्याही कन्या बैठा रखने से बड़ी बदनामी वा दोष होगा ।इसके कारण डर कर लोग यह दुष्कृत्य करते हैं, तब समर्थ साई जगजीवन दास जी ने कहा ऐसा अधर्म कभी ना करना ,यदि ऐसा करोगे तो हम नहीं रहेंगे ,और दूसरी बात यह कि अगर यह कन्या जीवित रहेगी तो इसका विवाह राजा से ही होगा ।बे ब्याही बिठाना मारने से ज्यादा अच्छा होता है, और यह कहकर अपनी जगह खेलने चले गए ।लेकिन पिता ने उनकी बात पर विश्वास ना किया ,और सारी घटना पिता जी ने एक वृद्ध पड़ोसी ठाकुर को बताई। बृद्ध ठाकुर ने कहा बच्चे की बात पर विश्वास ना करो और आप कुछ ना करो अब मैं करता हूँ वह कंस के धर्म वाले बृद्ध ठाकुर उठे और लड़की को उठाकर पटक कर मार देना चाहा ।उस लड़की को छूते ही उनके समस्त शरीर में जलन होने लगी।उन्होंने उसी समय लड़की को माता की गोद में डाल दिया, मगर शरीर की जलन शांत ना हुई ।तब वह जोर-जोर से चिल्लाने लगे तब आपके पिताजी ने आपसे निवेदन किया कि लड़की को कोई नहीं मारेगा मगर उस वृद्ध ठाकुर को बचा लो ।तब समर्थ साईं जगजीवन दास जी ने कहा कि सत्य ना मानने वालों का यही हाल होता है ।जाकर उसे पावन अभरनकुंड में नहलाओ।उसके पवित्र पावन जल से उसे शीतलता प्राप्त होगी। उसी समय ठाकुर अभरनकुंड में भाग कर कूद गए तब उनकी जान बची ,और लड़की का विवाह अच्छी तरह परवरिश पाकर राजा के साथ ही हुआ। |
Saturday, April 6, 2019
कीर्ति गाथा 3
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